Saturday, May 30, 2009

चित्तोड़ की महारानी पद्यमिनी


दुर्ग शिरोमणि चित्तोडगढ का नाम इतिहास में स्वर्णिम प्रष्टों पर अंकित केवल इसी कारण है कि वहां पग-पग पर स्वतंत्रता के लिए जीवन की आहुति देने वाले बलिदानी वीरों की आत्मोसर्ग की कहानी कहने वाले रज-कण विद्यमान है | राजस्थान में अपनी आन बान और मातृभूमि के लिए मर मिटने की वीरतापूर्ण गौरवमयी परम्परा रही है और इसी परम्परा को निभाने के लिए राजस्थान की युद्ध परम्परा में जौहर और शाको का अपना विशिष्ठ स्थान रहा है ! चित्तोड़ के दुर्ग में इतिहास प्रसिद्ध तीन जौहर और शाके हुए है |

दिल्ली
के बादशाह अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तोड़ की महारानी पद्मिनी के रूप और सोंदर्य के बारे में सुन उसे पाने की चाहत में विक्रमी संवत १३५९ में चितोड़ पर चढाई की | चित्तोड़ के महाराणा रतन सिंह को जब दिल्ली से खिलजी की सेना के कूच होने की जानकारी मिली तो उन्होंने अपने भाई-बेटों को दुर्ग की रक्षार्थ इकट्ठा किया समस्त मेवाड़ और आप-पास के क्षत्रों में रतन सिंह ने खिलजी का मुकाबला करने की तैयारी की | किले की सुद्रढ़ता और राजपूत सैनिको की वीरता और तत्परता से छह माह तक अलाउद्दीन अपने उदेश्य में सफल नही हो सका और उसके हजारों सैनिक मरे गए अतः उसने युक्ति सोच महाराणा रतन सिंह के पास संधि प्रस्ताव भेजा कि मै मित्रता का इच्छुक हूँ ,महारानी पद्मिनी के रूप की बड़ी तारीफ सुनी है, सो मै तो केवल उनके दर्शन करना चाहता हूँ |
कुछ गिने चुने सिपाहियों के साथ एक मित्र के नाते चित्तोड़ के दुर्ग में आना चाहता हूँ इससे मेरी बात भी रह जायेगी और आपकी भी |

भोले
भाले महाराणा उसकी चाल के झांसे में आ गए | २०० सैनिको के साथ खिलजी दुर्ग में आ गया महाराणा ने अतिथि के नाते खिलजी का स्वागत सत्कार किया और जाते समय खिलजी को किले के प्रथम द्वार तक पहुँचाने आ गए |
धूर्त खिलजी मीठी-मीठी प्रेम भरी बाते करता- करता महारणा को अपने पड़ाव तक ले आया और मौका देख बंदी बना लिया | राजपूत सैनिको ने महाराणा रतन सिंह को छुड़ाने के लिए बड़े प्रयत्न किए लेकिन वे असफल रहे और अलाउद्दीन ने बार-बार यही कहलवाया कि रानी पद्मिनी हमारे पड़ाव में आएगी तभी हम महाराणा रतन सिंह को मुक्त करेंगे अन्यथा नही |अतः रानी पद्मिनी के काका गोरा ने एक युक्ति सोच बादशाह खिलजी को कहलाया कि रानी पद्मिनी इसी शर्त पर आपके पड़ाव में आ सकती है जब पहले उसे महाराणा से मिलने दिया जाए और उसके साथ उसकी दासियों का पुरा काफिला भी आने दिया जाए | जिसे खिलजी ने स्वीकार कर लिया |

योजनानुसार रानी पद्मिनी की पालकी में उसकी जगह स्वयम गोरा बैठा और दासियों की जगह पालकियों में सशत्र राजपूत सैनिक बैठे | उन पालकियों को उठाने वाले कहारों की जगह भी वस्त्रों में शस्त्र छुपाये राजपूत योधा ही थे | बादशाह के आदेशानुसार पालकियों को राणा रतन सिंह के शिविर तक बेरोकटोक जाने दिया गया और पालकियां सीधी रतन सिंह के तम्बू के पास पहुँच गई वहां इसी हलचल के बीच राणा रतन सिंह को अश्वारूढ़ कर किले की और रवाना कर दिया गया और बनावटी कहार और पालकियों में बैठे योद्धा पालकियां फैंक खिलजी की सेना पर भूखे शेरों की तरह टूट पड़े अचानक अप्रत्याशित हमले से खिलजी की सेना में भगदड़ मच गई और गोरा अपने प्रमुख साथियों सहित किले में वापस आने में सफल रहा महाराणा रतन सिंह भी किले में पहुच गए |

छह
माह के लगातार घेरे के चलते दुर्ग में खाद्य सामग्री की भी कमी हो गई थी इससे घिरे हुए राजपूत तंग आ चुके थे अतः जौहर और शाका करने का निर्णय लिया गया | गोमुख के उतर वाले मैदान में एक विशाल चिता का निर्माण किया गया | पद्मिनी के नेतृत्व में १६००० राजपूत रमणियों ने गोमुख में स्नान कर अपने सम्बन्धियों को अन्तिम प्रणाम कर जौहर चिता में प्रवेश किया | थोडी ही देर में देवदुर्लभ सोंदर्य अग्नि की लपटों में स्वाहा होकर कीर्ति कुंदन बन गया | जौहर की ज्वाला की लपटों को देखकर अलाउद्दीन खिलजी भी हतप्रभ हो गया |

महाराणा
रतन सिंह के नेतृत्व केसरिया बाना धारण कर ३०००० राजपूत सैनिक किले के द्वार खोल भूखे सिंहों की भांति खिलजी की सेना पर टूट पड़े भयंकर युद्ध हुआ गोरा और उसके भतीजे बादल ने अद्भुत पराक्रम दिखाया बादल की आयु उस वक्त सिर्फ़ बारह वर्ष की ही थी उसकी वीरता का एक गीतकार ने इस तरह वर्णन किया -
बादल बारह बरस रो,लड़ियों लाखां साथ | सारी दुनिया पेखियो,वो खांडा वै हाथ || इस प्रकार छह माह और सात दिन के खुनी संघर्ष के बाद १८ अप्रेल १३०३ को विजय के बाद असीम उत्सुकता के साथ खिलजी ने चित्तोड़ दुर्ग में प्रवेश किया लेकिन उसे एक भी पुरूष,स्त्री या बालक जीवित नही मिला जो यह बता सके कि आख़िर विजय किसकी हुई और उसकी अधीनता स्वीकार कर सके | उसके स्वागत के लिए बची तो सिर्फ़ जौहर की प्रज्वलित ज्वाला और क्षत-विक्षत लाशे और उन पर मंडराते गिद्ध और कौवे |

यह इतिहास की घटना विश्व इतिहास की महानतम साहसिक घटनाओं में से एक है।

Sunday, March 15, 2009

मूमल और महेन्द्रा



As many folk tales do, this one begins with a beautiful princess. This particular princess was named Moomal, and she lived in a palace on the banks of the Kak river at Lodarva -Jaisalmer. Much to the chagrin of her father, Moomal remained unmarried despite the numerous attempts of suitors from all across the land to win her favor.

This went on for quite a while until the arrival of a young man named Mahendra. Handsome and charming, this Prince of Amarkot (in the land of Sindh) was able to persuade Moomal’s maid to show him the secret entrance to Moomal’s bedchamber. From then on Mahendra would visit Moomal every night, then speed home to Sindh on his camel each morning before his harem at home would notice anything was amiss.

Moomal’s sister, Soomal, was very curious about her sister’s love interest and wanted to see him. She traveled to Moomal’s palace in Lodarva and disguised herself as a wandering minstrel so that she could wait incognito with Moomal in the bedchamber for the prince’s arrival. But it just so happened that Mahendra was delayed that night. His wives, suspecting that something was amiss, had kept him up into the early morning hours with requests and questions. It wasn’t until the sun was threatening to rise that he was able to come to visit Moomal.


When he arrived, however, he found her not alone but sleeping peacefully in bed with what appeared to be a wandering minstrel! In a furious rage, he left his camel-rod between them and stormed away from Lodarva vowing never to return.

Many months passed, and Moomal wrote many pleading letters of explanation, but the irrational Mahendra threw them away without reading them. Finally Moomal decided to disguise herself as a man selling bangles, and set out for the Prince’s palace on foot. So charming a bangle-salesman was she, that she was invited into Prince Mahendra’s company to play a game called “chopar” with him. After they had played for a few hours, she noticed that the prince had grown silent and there were tears in his eyes.

“What makes you so sad?” she asked.
“The birth mark on your hand,” he replied, “reminds me of one whom I loved dearly but have lost to another.”
At this, of course, Moomal lifted her veil and said, “I am your Moomal!”

The prince was overjoyed, but the couple’s hearts were so weakened by their separation and suffering that they died right there in mutual embrace (Few details about why exactly this occurred are given, but this sort of thing seems to often happen in folk tales.) It is said that to this day the remains of Moomal’s palace can still be seen emerging from the desert sands on the bank of the Kak River, which has not flown since.

जैसलमेर से थोडी ही दूर एक प्राचीन बस्ती लौद्रवा है। जहाँ मूमल रहती थी। १००० साल या उससे भी पहले। महेंद्रा सिंध के अमरकोट का राज कुमार था। हम मूमल और महेन्द्रा के प्रेम को जानते है। इतने सालों बाद भी। महेंद्रा पहले से ही विवाहित था, पर प्रेम का पंछी कहाँ ये सब देखता है,किसी भी डाल पर बैठ जाता है। राजस्थानी के प्रख्यात साहित्यकार और थार की संस्कृति के मर्मज्ञ आइदान सिंह के शब्दों में कहें तो' हालांकि महेन्द्रा पहले से ही विवाहित था पर मूमल को एक झलक देखते ही उसकी सारी सांसारिकता तार तार हो गई'

गणगौर तीज


गणगौर रँगीले राजस्थान के मुख्य पर्वोँ मेँ से एक है जिसका सम्बन्ध श्री पार्वती पूजा से है हिन्दू धर्म मेँ स्त्रियाँ अपनी मनोकामनाओँ की पूर्ति के लिये देवी पार्वती की आराधना करती हैँ

श्री रामचरितमानस मेँ भी श्री सीताजी का अपने विवाह से पहले गिरिजा पूजन का वर्णन है

ईसर -गोर जो कि श्री शँकर और पार्वती के ही स्वरूप हैँ, राजस्थानी स्त्रियोँ की कोमल भावनाओँ की पूर्ति करने वाले आराध्य हैँ ।

होली के दूसरे दिन से शुरु होकर यह पर्व सोलह दिनोँ तक चलता है, जिसमेँ कुँवारी लडकियाँ अपने लिये ईसर जैसे ही वर की कामना करती हैं

बाडी वाला बाडी खोल, बाडी की किँवाडी खोल, छोरियाँ आईँ छे दूब लेण, गाकर दूब लाती हैँ और ईसर-गोर की पूजा दूब से करती हैँ वहीँ नवविवाहिता अपने अखँड सौभाग्य के लिये गणगौर पूजने का आग्रह करती है - म्हारी सखियाँ जोवै बाट, भँवर म्हाने खेलण द्यौ गणगौर -

गणगौर एवँ स्वयँ के लिये श्रृँगार की माँग भी उनका अधिकार है -माथा ने मैमँद पैरो गणगौर, कानाँ नै कुण्डल पैरो गणगौर, जी म्हेँ पूजाँ गणगोर - ईसर्दासजी भी नखराळी गणगोर की माँगेँ पूरी करते हैँ - ईसरदासजी ज्याजो समन्दर पार जी, तो टीकी ल्याजो जडाव की जी - एक विशेष प्रकार की चूँदडी की भी माँग है -ईसरजी ढोला जयपुर ज्याजो जी, बठे सुँ ल्याय ज्योजी जाली री चूँदडी, मिजाजी ढोला हरा-हरा पल्ला हो, कसूमल होवै जाली री चूँदडी, स्वयँ के लिये भी-म्हारा माथा नै मैमँद ल्याओ बालम रसिया, म्हारी रखडी रतन जडओ रँग रसिया, म्हारी आँखडली फरूकै बेगा आवो रँग रसिया

गणगौर का पर्व पति - पत्नी के अखंड प्यार का द्योतक है । इसके गीतोँ मेँ पति - पत्नी के बीच होने वाले मान - मनुहार का भी दर्शन है -

लूम्बी ल्याजो जी, ओजी म्हारा ईसरजी ओ उमराव जटाधारी लुम्बी ल्याजोजी ।लुम्बी मैँगी ए ओए म्हारी पातडली गनगोर गुमानण राणी लुम्बी मैँगी ए ।मैँगी सैँगी ल्याजोजी ओजी म्हारा इसरजी ओ भवतार जटाधारी मैँगी सैँगी ल्याजोजी ।

इसी प्रकार सारे गहनोँ की माँग है नहीँ तो गोराँ बाई रूसने की भी धमकी देती हैँ और ईसरजी अपनी रानी को मनाने के लिये मैँगी सैँगी भी लाने को तैयार हैँ ।

म्हारै बाबाजी रै माँडी गणगौर, सुसराजी रै माँड्यो रँग रो झुमकडो ।लेद्यो - लेद्यो नी नणद बाई रा बीर, लेद् यो हजारी ढोला झुमकडो ॥

झूठणा सोहे बहू गोराँदे रे कान, ईसरजी झूठणाँ मोल लिया ।गोरी एकरस्याँ म्हानै पहेर दिखाय , तनै किसा क सोवै झूठणा ।सायब पैराँ - पैराँ बार तिवार, म्हारे कानुराम परण्याँ पैरस्याँ ।

(झुमका शोभायमान हो रहा है गोराजी के कान मेँ, ईसरजी ने खरीदा है ।गोरी एकबार मुझे पहनकर दिखाओ कि झुमका तुम्हारे ऊपर कैसा लगता है ।सायब मैँ तो अच्छे दिन या त्योहार को पहनूँगी और मेरे कानीराम का विवाह होगा तब पहनूँगी ।

घर मेँ होने वाले माँगलिक कार्य के लिये लगाव एवँ रुचि भी है और तैयारी भी रखना चाहती हैँ ।

कहानी कहते - सुनते समय गौराँ बाई से अखँड सौभाग्य की तो कामना करती ही हैँ, साथ मेँ प्रसव पीडा से भयभीत होती हुई भी दिखती हैँ, किंतु मातृत्व के सुख को देख वो सँतान की कामना भी करती हैँ ।

गणगौर से माँग भी है -पुजो ए पुजावो सँइयोँ काँई-काँई माँगा, माँगा ए म्हेँ अन-धन लाछर लिछमी- जिसमेँ अपने पीहर परिवार का साथ और प्यार माँगती है -इतरो तो देई माता गौरजा ए, इतरो सो परिवार, देई तो पीयर सासरौ ए, सात भायाँ री जोड परण्याँ तो देई माता पातळा ए, साराँ मेँ सिरदार - आनंद और उमँग से गीत गाते हुए गणगौर के नख-शिख का वर्णन करते हुए, कभी झूला झुलाती हैँ - चम्पे री डाळ हिन्डोलो घाल्यो --- तो ले बाई गोरां ने साथ, जी म्हें हींडो घाल्यो - तो कभी साली बनकर सीठना भी देती है - ईसरजी तो पेचो बाँधे, गोरा बाई पेच सँवारे ओ राज, म्हेँ ईसर थारी साली छाँ, साली छाँ मतवाली ओ राज म्हेँ ईसर थारी साली छाँ - कहानी कहते समय गोराँ बाई से अखँड सौभाग्य की तो कामना करती ही हैँ, साथ मेँ पुत्र सुख की भी कामना है, गोराँ बाई ससुराल और पीहर के मान-सम्मान को भी बनाये रखती हैँ,गोराँ बाई का मोती जोगा भाग, उनकी आराधना से हमेँ भी सँपूर्ण गृहस्थी का सुख प्रदान करती है

Saturday, March 14, 2009

गोविंददेव मंदिर का फाग उत्सव

राजस्थान के मंदिरों में होली पर रंग-गुलाल के साथ फाग उत्सव का आयोजन किया जाता है.

कई दिन तक चलने वाले इस उत्सवों में भक्त भगवान के साथ होली खेलते हैं तो फ़नकार संगीतमय प्रस्तुतियों के साथ उनकी आराधना करते हैं. इसमें मुस्लिम कलाकार भी शिद्दत से भाग लेते हैं.

इन दिनों में जयपुर के इष्टदेव गोविंद देव मंदिर में नज़ारा देखने लायक होता है।








जयपुर के गोविंद देव मंदिर में फाग महोत्सव की यह परंपरा ढाई सौ साल पुरानी है

फूलों की होली

मंदिर-देवालयों में रंग गुलाल-अबीर की रौनक होती है तो कहीं भक्त भगवन के साथ फूलों की होली खेलते है. इस दौरान मंदिरों की छटा इंद्रधनुषी हो जाती है.

रोज़ अलग-अलग कलाकार अपने फ़न का मुज़ाहिरा कर अपने प्रिय कान्हा के साथ होली खेलने का चित्रण करते हैं.

वैसे कान्हा का वृन्दावन तो जयपुर से दूर है मगर गोविंद देव मंदिर में जब फाग उत्सव का आयोजन किया गया तो वहाँ बरसाना भी था और जमुना का तट भी क्योंकि गोविंद देव जयपुर के अधिपति माने जाते है।

मंदिर से जुड़े गौरव धामानि कहते हैं, "यह ढाई सौ साल से भी ज्यादा पुरानी परंपरा है और रियासत काल से चली आ रही है. दरसल ठाकुर जी (भगवान) को रिझाने के लिए फाग उत्सव शुरू किया गया था, जो अब भी जारी है."

वह बताते हैं, "तीन दिन तक चलने वाले इस उत्सव में राज्य भर के क़रीब ढाई सौ कलाकार अपनी कला का भक्ति भाव से प्रदर्शन करते हैं। इसमें जात-पात या मजहब का कोई सवाल नहीं है. कई मुस्लिम कलाकार भी इसमे भाग लेंते हैं."

आयोजन के पहले दिन को मंदिर में राजभोग की झांकी सजी और कलाकारों ने अपनी-अपनी शैली में वंदना की.

कत्थक नृत्यांगन गीतांजलि ने नृत्य पेश किया। उन्होंने कहा, "यह भगवान की बंदगी है. यह समर्पण है, हमने जो कुछ भी सीखा है, उसे इश्वर के चरणों में समर्पित कर दिया."

कत्थक गुरु डाक्टर शशि सांखला कहती हैं, "कृष्ण कथानक और होली का गहरा रिश्ता है. कत्थक और गोविंद देव अलग-अलग नही हैं. श्रीकृष्ण को कत्थक का आराध्य देव मना जाता है. होली आती है तो कृष्ण को याद किया जाता है क्योंकि उनका स्वभाव चंचल है."

त्योहार प्रेम और सद्भाव का संदेश लेकर आते हैं। भक्ति से भरे माहौल में जब नगाड़े की नाद सुनाई देती है तो यह शफ़ी मोहम्मद का हुनर है. वे हज करके लौटे हैं और ख़ुदा के पक्के अक़ीदतमंद हैं लेकिन उनके मज़हब ने उन्हें भक्ती की इस रसधारा में शामिल होने से नहीं रोका.

साज़ से इबादत

वह कहते हैं, "इबादत में क्यों फ़र्क किया जाए. हम पीढ़ियों से इससे जुड़े हैं.गोविंद के दरबार में आते हैं और अपने साज़ से इबादत करने वालों का साथ देते हैं।"






मंदिर में रोज अलग-अलग कलाकार अपने फ़न का मुज़ाहिरा करते हैं

शफ़ी कहते हैं, "रियासतों के समय से हम मंदिरों में जाते हैं, शहनाई बजाते हैं, नगाड़ा बजाते हैं। भजन भी गाते हैं. भगवान और ख़ुदा एक हैं. यह तो सियासत की लड़ाई है जो हमें बाँटती है.रियासतकाल में हिंदू और मुसलमान के रिश्ते और भी पुख़्ता थे."

क्या रेहाना क्या प्रवीण मिर्ज़ा और क्या हिंदू क्या मुसलमान. आस्था के इस सैलाब में सब एकाकार थे.

प्रवीण क़रीब एक दशक से गोविंद देव मंदिर में आती हैं और अपनी आवाज़ से हाज़री लगाती हैं। वे कहने लगीं, "राम-रहीम सब एक हैं. फ़नकार इबादत को विभाजित नहीं करता. हम मंदिर भी जाते है तो मस्ज़िद भी. यहाँ रूहानी सुकून मिलता है क्योंकि ये इबादत की जगह है."

रेहाना भी एक कलाकार है. उन्होंने गोविंद देव मंदिर में फाग गाया. उन्होंने बताया कि फाग में कान्हा की लीला का चित्रण किया है. ये मुक़द्दस मुक़ाम है. यहाँ तसल्ली मिलती है. चंद लोग हैं जो इंसानियत को बाँटते है.

जवाहर कला केंद्र की चंद्रमणि सिंह बताती हैं कि यह परंपरा बहुत पुरानी है. लोग शिव को भी रंग-गुलाल चढ़ाते हैं लेकिन कृष्ण को लोग सखा मानते है. उनके साथ लोग होली खेलते हैं.जब से रंग की शुरुआत हुई है, तब से मुस्लिम कलाकार आते हैं, फाग गाते हैं.

जोधपुर के राजा मान सिंह के दरबार में रमज़ान ख़ान गायक थे. उनकी होली बड़ी मशहूर थी. रमज़ान होली के गीत गाते थे. तब धर्म के आधार पर कोई दीवार नहीं होती थी.

गोविंद देव मंदिर का फाग उत्सव नेक़ इबादत का समागम था. कोई मज़हब-मिल्लत या धर्म-संप्रदाय की श्रेष्ठता का सवाल उठा, किसी ने पूछा की ख़ुदा बड़ा है या भगवान!


Wednesday, February 4, 2009

थार मरुस्थल


थार मरुस्थल भारत के उत्तरपश्चिम में तथा पाकिस्तान के दक्षिणपूर्व में स्थितहै। यह अधिकांश तो राजस्थान में स्थित है!थार मरुस्थल अद्भुत है। गरमियों में यहां की रेत उबलती है। इस मरुभूमि में साठ डिग्री सेल्शियस तक तापमान रिकार्ड किया गया है। जबकि सरदियों में तापमान शून्य से नीचे चला जाता है। गरमियों में मरुस्थल की तेज हवाएं रेत के टीलों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाती हैं और टीलों को नई आकृतियां प्रदान करती हैं।

जन-जीवन के नाम पर मरुस्थल में मीलों दूर कोई-कोई गांव मिलता है। पशुपालन (ऊंट, भेड़, बकरी, गाय, बैल) यहां का मुख्य व्यवसाय है। दो-चार साल में यहां कभी बारिश हो जाती है। कीकर, टींट और खेचड़ी के वृक्षकहीं-कहीं दिखाई देते हैं। इंदिरा नहर के माध्यम से कई क्षेत्रों में जल पहुंचाने का प्रयास आज भी जारी है।

मरुस्थल में कई जहरीले सांप, बिच्छु और अन्य कीड़े होते हैं।

राजस्थान में मरू समारोह (फरवरी में ) - फरवरी में पूर्णमासी के दिन पड़ने वाला एक मनोहर समारोह है। तीनदिन तक चलने वाले इस समारोह में प्रदेश की समृद्ध संस्कृति का प्रदर्शन किया जाता है।

प्रसिद्ध गैर व अग्नि नर्तक इस समारोह का मुख्य आकर्षण होते है। पगड़ी बांधने व मरू श्री की प्रतियोगिताएंसमारोह के उत्साह को दुगना कर देती है। सम बालु के टीलों की यात्रा पर समापन होता है, वहां ऊंट की सवारी काआनंद उठा सकते हैं और पूर्णमासी की चांदनी रात में टीलों की सुरम्य पृष्ठभूमि में लोक कलाकारों का उत्कृष्टकार्यक्रम होता है।

राजस्थान के ६० फीसदी हिस्से को थार मरुस्थल अपने में समेटे हुए है। दूर से देखने पर किसी को भी लग सकता हैकि मरुस्थल में होता ही क्या है, तो ऐसे लोगों को मैं बताना चाहूँगा कि यहाँ बहुत कुछ है।


थार मरुस्थल में कुछ ऐसेजीव-जंतु पाए जाते हैं जो दुनिया में और कहीं नहीं पाए जाते। इन दुर्लभ प्रजातियों में से कुछ को तो आईयूसीएन (इंटरनेशनल यूनियन फॉर कनजरवेशन आफ नेचर) ने अपनी रेड डेटा बुक में शामिल कर रखा है। लेकिनकुछ प्रजातियों तो उसकी नजरों से भी चूक गईं। ये प्रजातियाँ रेड डेटा बुक में शामिल प्रजातियों से भी ज्यादा दुर्लभहैं। इसका मुख्य कारण यह है कि इन प्रजातियों के बारे में ज्यादा लोग नहीं जानते इसलिए उनपर किसी प्रकार काशोध भी नहीं हुआ। ऐसी प्रजातियों को डेटा डेफिशियेन्ट कहा जाता है।

भारत के कई पौराणिक कथाओं में रेगिस्तान बैकड्राप निर्माण करता है और वर्तमान समयों में पर्यटक के इच्छुक स्थान कहा जाता है

थॉर या ग्रेट भारतीय रेगिस्तान एक मरूभूमि (८०० किलोमीटर ) दीर्घ है तथा (४०० किलोमीटर) गहरे है। यह भारत के उत्तर पच्चिम में और पाकिस्तान के पूर्वी दिच्चा में तथा पच्चिम पर इंडस सतलज नदी घाटी और पूर्वी पर आरवली रेजं के बीच स्थित है। च्चिफ् होनेवाले रेत ड्यून, टूटे पत्थर और स्क्रब पेड पौधे का मुख्यतः निर्जन क्षेत्र, यह २५ से मी से कम वार्षिक औसतम वर्षा प्राप्त करता है। बहुत ही कम जनसंख्या क्षेत्र में पेस्टोरल एकानमी उपलब्ध है। सतलज और बियस पानी बहाये गये कैनलों के विस्तार द्वारा, खेती ने कुछ जमीन कृषि के लिए उत्तर तथा पच्चिम कोनों में पा लिया है

अस्त के समय सैडं ड्यूनस पर ऊँट सवारी एक अपूर्व अनुभव है। यह जगह पुराने जमाने के कुछ बेहतर यादगाच्च्तों को अपने पास रखने का गर्व रखता है - राजमहल, कला, मंदिर तथा वास्तुकला तथा ऐतिहासिक मूल्य के अन्य खूबसूरत स्मारह चिन्ह और किसी भी आगन्तुक को अपूर्व न्योता दिलाता है।

डींगल भाषा

राजस्थान में भक्ति, शौर्य और श्रृंगार रस की भाषा रही डींगल अब चलन से बाहर होती जा रही है.अब हालत ये है कि डींगल भाषा में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध प्राचीन ग्रंथों को पढ़ने की योग्यता रखने वाले बहुत कम लोग रह गए हैं.

कभी डींगल के ओजपूर्ण गीत युद्ध के मैदानों में रणबाँकुरों में उत्साह भरा करते थे लेकिन वक़्त ने ऐसा पलटा खाया कि राजस्थान, गुजरात और पाकिस्तान के सिंध प्रांत के कुछ भागों में सदियों से बहती रही डींगल की काव्यधारा अब ओझल होती जा रही है!

जोधपुर विश्वविद्यालय में राजस्थानी भाषा विभाग के पूर्व अध्यक्ष और डींगल के विद्वान डॉक्टर शक्तिदान कबिया कहते हैं कि डींगल अभी जीवित तो है लेकिन इसे अपने वजूद के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है.डींगल का शब्द भंडार अत्यंत समृद्ध है. इसमें एक-एक शब्द से तीस-तीस पर्यायवाची शब्द मौजूद हैं.

भारत के पूर्व केंद्रीय मंत्री जसवंत सिंह डींगल के बड़े प्रशंसक हैं. उन्होंने जोधपुर में चारण कवियों के एक समारोह में डींगल की महत्ता का बयान किया.

राजस्थान में शायद ही कोई ऐसा हो जिसकी प्रशस्तियों में डींगल के गीत ना हों!कुछ आलोचक कहते हैं कि डींगल महलों और राजदरबारों तक ही सीमित रही लेकिन डॉक्टर कविया कहते हैं, "डींगल आम अवाम की ज़ुबान रही है."डींगल कवियों ने हर विषय पर कविताएँ लिखी हैं. बल्कि अनेक मौक़ों पर राजाओं को फटकार भी लगाई है.

बंगाल में भी जब आज़ादी के प्रति चेतना के स्वर नहीं फूट रहे थे तब राजस्थान में डींगल कवि स्वाधीनता के गीत लिख रहे थे.जोधपुर के राजकवि बाँकीदास ने 1805 में 'आयो अंग्रेज़ मुल्क के ऊपर' जैसा अमर गीत लिखकर राजाओं को उलाहना दिया था.डींगल गीतों का वाचन और गायन बहुत सरल नहीं है. इसमें विकटबंध गीत और भी कठिन माना जाता है!

डॉक्टर कविया एक विकटबंध गीत की मिसाल देते हैं जिसमें पहली पंक्ति में 54 मात्राएँ थीं, फिर 14-14 मात्राओं की 4-4 पंक्तियाँ एक जैसा वर्ण और अनुप्राश! इसे एक स्वर और साँस में बोलना पड़ता था और कवि गीतकार इसके लिए अभ्यास करते थे.

प्रसिद्ध साहित्यकार डॉक्टर लक्ष्मी कुमारी चूड़ावत चिंता के स्वर में कहती हैं कि यही हाल रहा तो डींगल का वजूद ही ख़तरे में पड़ जाएगा.वक़्त बहुत तेज़ी से बदल रहा है. ज़माना फ़ास्ट फूड का है. पहले जीभ का स्वाद बदला और अब मुँह की बोली भी पीछे छूटती जा रही है.

यह विडंबना ही है कि सदियों तक नीति और नैतिकता की सदा बुलंद करने वाली डींगल भाषा को अब अपने वजूद के लिए मदद की गुहार लगानी पड़ रही है.