इस प्रेम वार्ता का कथानक, सूत्र में इतना ही है कि पूंगल का राजा अपने देश में अकाल पड़ने के कारण मालवा प्रान्त में, परिवार सहित जाता है। उसकी शिशु वय की राजकुमारी (मारवणी) का बाल-विवाह, मालवा के साल्हकुमार (ढोला) से कर दिया जाता है। सुकाल हो जाने से पूंगल का राजा लौट कर घर आ जाता है। साल्हकुमार वयस्क होने पर अपनी पत्नी को लिवाने नहीं जाता है। उसे इस बाल विवाह का ज्ञान भी नहीं होता है। इस बीच साल्हकुमार का विवाह मालवाणी से हो जाता है जो सुन्दर और पति-अनुरक् ता है। मालवणी को मारवणी (सौत) के होने का ज्ञान है और पूंगल का कोई संदेश अपने मालवा में आने नहीं देती है।
कालांतर में मारवणी (मारू) अंकुरित यौवना होती है। उस पर यौवन अपना रंग दिखाता है। इधर स्वप्न में उसेप्रिय का दर्शन भी हो जाता है। पर्यावरण से सभी उपकरण उसे विरह का दारुण दु:ख देते हैं। पपिहा, सारस एवंकुञ्ज पक्षीगण को वह अपनी विरह व्यथा सम्बोधित करती है। पूंगल के राजा के पास एक घोड़ों का सौदागर आताहै और मालवा के साल्हकुमार की बात करता है। यह सूचना सुनकर मारवणी और व्यथित हो जाती है।साल्हकुमार को बुलावा ढाढियों (माँगणहार) के द्वारा भेजा जाता है। यह गाने बजाने वाले चतुर ढाढी गन्तव्य स्थानपर पहुँचकर, साल्हकुमार (ढोला) को मारवणी की स्थिति का पूरा ज्ञान करा देते हैं। ढोला पूंगल हेतु प्रस्थान करनाचाहता है परन्तु सौत मालवणी उसे बहाने बनाकर रोकती रहती है। मालवणी की ईर्ष्या, चिन्ता, उन्माद, कपट, विरह और असहाय अवस्था का वर्णन दूहों में विस्तार से हुआ है। अन्त में ढोला प्रस्थान कर ही देता है और पूंगलपहुँच जाता है। ढोला और मारवणी का मिलन होता है। सुख विलास में समय व्यतीत होता है।
ढोला मारू सकुशल अपने घर पहुंचते हैं। आनन्द से जीवन व्यतीत करते हैं। वहां पर चतुर ढोला, सौतिहा डाह कीनोंक झोंक का समाधान भी करता है। मारवणी को अधिक प्यार व स्नेह समर्पित करता है।
इस लोक काव्य का क्या मूल रूप था ? यह खोजना कठिन है। जिस कथा का उत्स काल की पर्तों में खो गया हो, उसका आदि खोजना असम्भव-सा है। परन्तु प्रस्तुत ‘ढोला-मारू रा दूहा’ नामक कृति के जितने राजस्थानीपरम्परा के रूपान्तर मिले हैं उनमें एक लाक्ष-णिक तथ्य उजागर होता जान पड़ता है। यदि विचारार्थ यह कहसकते है कि यह तो ‘प्रसंगात्मक गीतों’ का संग्रह है जिसमें प्रसंगों के कथा सूत्र को अथ से इति तक अक्षुण्ण रखनेका ध्यान रखा गया है। यह कॄति मूल रूप से दोहो मे मिलती है। ये दोहे श्रॄंगार रस की जो परम्परा आरंभ करते हैवही आगे जाकर बिहारी के दोहो मे प्रतिफलित होती है। डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इस काव्य के भाव गाम्भीर्य कोपरिष्कॄत लोक-रूचि का प्रतीक माना है।
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